दान का महत्व
हिन्दू शास्त्रों में दान का एक महत्वपूर्ण स्थान बताया गया है। दान की क्रिया का महत्व कई विधि-विधानों में आवश्यक बताया गया है। जैसे कि पित्र-शान्ति, सत्कर्म इत्यादि। दान को पुण्य करने का एक सरल साधन बताया गया है। दान दूारा मनुष्य अपने जीवन में किए पाप-कर्मों को नष्ट करने का प्रयत्न करता है ताकि मृत्योपरान्त उसे नर्क न जाना पडे. यह सब एक विश्वास है। हमें कुछ भी करने से पहले उस कार्य की सही विधी, उस कार्य में निहित भाव और उससे होने वाले परिणाम के विषय में पहले जान लेना चाहिए। तभी हम उस कार्य को सही ढंग से कर पांएगे। यही नीति दान पर भी लागू करनी चाहिए।
दान का वास्तविक अर्थ
दान का अर्थ जो हमारा आज का समाज समझता है, वो वास्तविकता नही है। दान का अर्थ समाज द्वारा समझा जाता है किसी पर एहसान करके उसे कुछ वस्तु या धन दे देना। यह कर के वे समझते है उनके पुण्य कर्मों में बढोतरी हो रही है, जोकि पूर्ण रूप से मूर्खता है। दान में एक भाव निहित होना आवश्यक है जिसके बिना वो दान नही केवल एक सौदा मात्र होगा क्योंकि उसमे हमारा कुछ स्वार्थ निहित होगा ही। जैसे कि दुनिया के लिए दिखावा, स्वयं को बडा मानना कि मैं कुछ दे रहा हुँ, सामने वाले और समाज में अपनी प्रतिष्ठा स्थापित करना इत्यादि।
दान में निहित भाव
दान में निहित भाव को समझने के लिए हमें दान का वास्तविक अर्थ पूर्ण रूप से समझना होगा। दान का अर्थ होता है कि- ईश्वर ने मुझे इतना दिया है जोकि मेरी मूल भूत आवश्यकताओं को पूर्ण करने के मुकाबले काफी अधिक है। इस अधिकता के कारण मैं इसका प्रयोग ऐसी वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए ही कर पाउंगा जो अन्ततः मेरे दुख का कारण बनेगी। यह सब मुझ पर एक बोझ बन कर रह जाएगा। जिसे मैं ढो नही पाऊँगा। तब हम दान प्रप्त करने वाले व्यक्ति से निवेदन करते है कि कृप्या यह बोझ समाप्त करे जिसके लिए मै आपका आभारी रहूँगा। इसमे ध्यान देना आवश्यक है कि दान प्राप्त करने वाला व्यक्ति, बडा होता है।
एक बात और इसे कदापि ऐसा नही समझना चाहिए कि हम अपना बोझ दूसरे पर डाल रहे है। क्योंकि दान देते समय हमें ऐसे व्यक्ति का चुनाव करना होता है जिसका उस दान से इतना ही लाभ हो कि उसकी मूल भूत आवश्यकताओं को पूर्ण करने में उसे सहायता मिले। इसलिए कृतार्थ का भाव दोनों तरफ समान हो जाता है।
दान आजकल के पंडितों की गाडियों की किश्तों को पूरा करने के लिए नहीं अपितु किसी जरूरतमंद की आवश्यकता की पूर्ति हेतु होना चाहिए। तभी उसे शास्त्रों के अनुसार दान की मान्यता मिलती है।
दान आजकल के पंडितों की गाडियों की किश्तों को पूरा करने के लिए नहीं अपितु किसी जरूरतमंद की आवश्यकता की पूर्ति हेतु होना चाहिए। तभी उसे शास्त्रों के अनुसार दान की मान्यता मिलती है।
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