आत्मा की यात्रा और महायुग का रहस्य
आत्मा और युगों का संबंध
नमस्कार
मित्रों, यह तो हम सभी जानते हैं कि शास्त्रों मे चार युग बताए गए हैं। जिन में से
अभी कलयुग चल रहा है। जो युग वर्तमान में गतिमान होता है, वह लोगों पर अपना प्रभाव
भी डालता है। चार युगों में सत्युग, त्रेता, द्वापर तथा कलयुग हैं। यह चारों युग
मिल कर एक महायुग का निर्माण करते हैं।
सत्युग
हर महायुग के प्रारंभ का दौर होता है। इसमें वही जीवात्माएँ जाती हैं जिनके कर्म पिछले
महायुग के कलयुग तक काफी अच्छे होते हैं। अन्य सभी जीवात्माएँ महायुग के कलयुग के अंत
में प्रलय में समा कर शरीर त्याग कर अपने अगले मनुष्य रूप में जन्म की प्रतीक्षा
करती हैं।
सत्युग
से कलयुग की यात्रा पुन्य से पाप की यात्रा है। यह जीवात्माओं की परीक्षा है।
युगों के बदलने के साथ जैसे जैसे पाप बढता रहता है, परीक्षा उतनी ही कठिन होती
जाती है। जो जीवात्मा कलयुग के अंत तक माया के प्रभाव से दूर रह कर स्वयं को स्थिर
रख पाती है, वही शुद्ध आत्मा कहलाती है और उसे परम् धाम बैकुंठ की प्राप्ति होती
है। वही जीवात्मा मुक्त होती है। या कह सकते हैं कि वही इस परीक्षा में सफल होती
है। वह जीवात्मा जन्म मरण के चक्र से मुक्त हो जाती है।
मुक्ति का द्वार
मनुष्य
के शरीर को मुक्ति का द्वार भी कहा गया है। ऐसा इसलिए है क्योंकि मनुष्य के रूप
में जन्म लेने पर मुक्ति का मार्ग काफी सरल व निकट होता है। इसमें जीवात्मा को
स्वयं को पापों से दूर रखना होता है, अच्छाई की राह पर चलना होता है जिससे जीव की आत्मा
की मलीनता समाप्त होती है और ईश्वर के निरंतर स्मरण से वह शुद्ध होती जाती है।
परम्
धाम बैकुंठ, जो कि हम सभी की जीवात्मा का अंतिम और सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य है, वहाँ
सिर्फ वही जीवात्मा जा सकती है जो कि मलीनता से दूर हो और पूर्ण रूप से शुद्ध हो।
इस लिए हम सब अपनी जीवात्मा की शुद्धि प्रक्रिया के लिए इस मृत्युलोक में जन्म
लेते हैं ताकि अपने कर्मों द्वारा अपने जीव को शुद्ध कर सकें।
युगों
के प्रारंभ से अंत तक जो जीव आत्मा अपने कर्मों तथा ईश्वर के प्रति अपने समर्पण से
मोक्ष प्राप्त कर लेती है, वही
सफल है। बाकि जीवात्माओं को अपने बुरे कर्मों के कारण अगले महायुग या फिर उससे भी
लंबे समय तक अपने अगले मनुष्य जन्म की प्रतीक्षा करनी पडती है, जोकि पूर्णतः उसके
कर्मों पर निर्धारित होती है। इसमें सबसे बडी चुनौती यह है कि जीव की स्मृति, मनुष्य
के रूप में जन्म मिलने के साथ ही धुंधली हो जाती है। यह स्मृति इतनी ज्यादा धूमिल
होती है कि मनुष्य रूप में किसी भी जीव को अपनी वास्तविकता का बोध नहीं रह जाता।
अब
प्रश्न यह है कि जब कुछ याद ही नहीं रहता तो कैसे हमें पता हो कि हमारे जीवन का लक्ष्य
क्या है? इसका जवाब भी हम बता चुके हैं। याद कीजिए,
कुछ भली जीवात्माओं को कलयुग के अंत में अगले महायुग के सत्युग में भेजा गया था।
यह दायित्व इन्हीं महात्माओं को दिया गया है कि पूरे महायुग के दौरान मनुष्य रूप
में जन्म लेने वाली जीवात्माओं को उनका वास्तविक लक्ष्य याद कराए। वही महात्माएँ
वेदों, शास्त्रों, ग्रंथों इत्यादि को एक महा युग से दूसरे महायुग में ले जाते हैं।
जिनके ज्ञान के द्वारा जीवात्माओं को उनके जन्म का लक्ष्य ज्ञात होता रहे और वह अपनी
जीव यात्रा में प्रगति कर पाएँ और बैकुंठ की यात्रा में सफल हो पाएँ।
आज
हमारे पास सभी जानकारी किताबों के रूप में मौजूद है। वेद, पुराण, शास्त्र, उपनिषद
आदि सभी उपलब्ध हैं पर हम इन्हें पढना आवश्यक नहीं समझते। माया द्वारा भ्रमित हमारी
बुद्धि मुक्ति के मार्ग पर अग्रसर नहीं होने देती। यह बार बार हमें माया की ओर आकर्षित
करती रहती है। हम भी बारंबार असफलता और निराशा पाने के बाद भी इतनी सरल सी बात
नहीं समझ पाते कि हमारे जीवन का वास्तविक उद्देश्य भोगों में लिप्त रहना नहीं,
अपितु अपनी जीवात्मा की मुक्ति करवाना है। तभी मनुष्य जीवन सफल कहलाएगा। अन्यथा
भौतिक जगत में सफल व्यक्तियों की सम्पत्ति तो हमें इसी संसार में देखने को मिलती
है पर वे समय के साथ अपना शरीर त्याद ही देते हैं। मृत्युलोक में सभी की मृत्यु
निश्चित है। तो खुद सोचिए कि यहाँ धन सम्पदा एकत्रित करने का वास्तविक लाभ क्या
है।
इस सरल
से सत्य के विषय में सोचें, समझें तथा अपनी समझ के अनुसार विचार कीजिए क्या हमारा
जन्म सिर्फ दिन भर की भाग दौड में उलझे रह कर एक दिन मर जाना ही है या बार बार इस
जन्म मरण के चक्र से मुक्ति पाना है।
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